संयुक्त भारत
संयुक्त भारत

भारत की 5 अनोखी और प्राचीन परम्पराएं

भारत की 5 अनोखी और प्राचीन परम्पराएं

भारत की विविध परंपराओं का अनुभव करें

Posted
Jul 29, 2024

भारत एक ऐसा देश है, जहां “अथिथि देवो भव भारतीय संस्कृति की अनोखी और सबसे पुरानी अवधारणा है। यहाँ की अनूठी और प्राचीन संस्कृतियाँ न केवल भारतीय समाज की पहचान हैं, बल्कि विश्व भर में अपनी विशेषता और गहराई के लिए जानी जाती हैं।

इस ब्लॉग में, हम भारत की कुछ अनूठी और पुरानी संस्कृतियों पर एक नज़र डालेंगे, जो आज भी जीवित हैं और भारतीय जीवन के हर पहलू में समाहित हैं। भारत की सांस्कृतिक विविधता और धरोहर हमें सिखाती है कि कैसे परंपराओं को सम्मान देना और उन्हें संजोना हमारी पहचान का हिस्सा है। हम देखेंगे कि कैसे विभिन्न त्योहार, पूजा विधियाँ, पारंपरिक कला और खान-पान की विशेषताएँ भारतीय समाज को एक अद्वितीय पहचान देती हैं।

 

पंजाब का "रूरल ओलंपिक्स"

पंजाब, भारत का एक ऐसा राज्य है जहाँ की सांस्कृतिक धरोहर और परंपराएँ विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। पंजाब के रायपुर जिले में हर साल ग्रामीण ओलंपिक्स का आयोजन किया जाता है। यह एक अनूठा और खास आयोजन है जो पंजाबी ग्रामीण जीवन की जीवन्तता और ऊर्जा को दर्शाता है।

इस खेल का आयोजन सन 1933 में रायपुर जिले के दानदाता इंदर सिंह ग्रेवाल ने किया था, उनका विचार था कि सालाना खेल उत्सव आयोजित किया जाए, जिसमें किला रायपुर के आसपास के गाँवों के किसान इकट्ठा होकर अपनी शारीरिक ताकत को परख सकें। इसी सोच से शुरू हुआ किला रायपुर खेल, जिसे अब 'ग्रामीण ओलंपिक्स' कहा जाता है।

60 साल से भी ज्यादा समय में, यह आयोजन एक छोटे से खेल उत्सव से बढ़कर एक बड़े और ऊर्जा से भरे कार्यक्रम में बदल चुका है। यह प्रमुख ग्रामीण खेल महोत्सव अब हर साल फरवरी के पहले सप्ताह में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होता है। इसके आयोजकग्रेवाल स्पोर्ट्स एसोसिएशनने अब ग्रामीण महिलाओं को खेलों में भी भाग लेने का मौका देने की दिशा में एक नई पहल की है।

यह त्योहार एक अनोखे लेकिन शानदार आयोजन होता है, जहाँ दूर-दराज से स्पोर्ट्स प्रेमी आते हैं और गेम्स का मजा लेते हैं। यह तीन दिनों तक चलता है और इस दौरान खेतों का काम रुक जाता है। पंजाबी परिवारों के पुरुष और महिला सदस्य कई खेलों में भाग लेते हैं। विभिन्न हिस्सों और पड़ोसी राज्यों से भी लोग आते हैं, अपनी कला का प्रर्दशन दिखाते है। खेलों के अलावा, पंजाबी ग्रामीण जीवन की खुशियाँ भी मनाई जाती हैं, जिसमें पंजाबी लोक संगीत और नृत्य का भी आयोजन किया जाता हैं।

यह त्यौहार इतना बड़ा है कि इसमें 18 से अधिक विभिन्न खेलों का आयोजन होता है, जैसे बैल गाड़ी की दौड़, कबड्डी, हॉकी, रस्साकशी, साइकिलिंग, वेट लिफ्टिंग, टेंट पेंटिंग, दौड़, ट्रैक्टर की दौड़ आदि। निहंग सिखों द्वारा की जाने वाली शानदार और साहसिक प्रदर्शन इस त्यौहार की महत्वपूर्ण विशेषताओं में शामिल हैं। दुनिया के सबसे रोमांचक और साहसिक त्यौहारों में से एक, KRSF अपने दर्शकों को अनूठा अनुभव प्रदान करता है।

 

तमिलनाडु का " थिम्मीथी फेस्टिवल"

थिम्मीथी तमिलनाडु का एक सालाना त्योहार है, जो हर साल तमिल कैलेंडर के ऐपासी महीने में मनाया जाता है। यह महीना आमतौर पर अक्टूबर और नवंबर के बीच आता है। इस त्योहार का आयोजन द्रौपदी अम्मन (पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी) की पूजा के लिए होता है।

यह त्योहार केवल तमिलनाडु में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी मनाया जाता है। फिजी, श्रीलंका, सिंगापुर, मलेशिया, और मॉरीशस में भी, जहां दक्षिण भारतीयों की बड़ी संख्या है, थिम्मीथी का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता है।

 

थिम्मीथी के पीछे की कहानी

महाभारत एक हिंदू महाकाव्य है। इसमें कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध की कहानी है। जब पांडवों ने जुए के खेल में सब कुछ हार दिया, यहाँ तक कि उनकी पत्नी द्रौपदी को भी। दुर्योधन ने अपने छोटे भाई को द्रौपदी को नंगा करने का आदेश दिया, लेकिन कृष्ण ने उसकी रक्षा की। इसके बाद, द्रौपदी ने एक प्रतिज्ञा की कि वह दुर्योधन के खून से अपने बाल धोएगी।

तेरह साल बाद, जब महाभारत युद्ध पांडवों की जीत के साथ समाप्त हुआ, द्रौपदी ने दुर्योधन के खून से अपने बाल धोए। यह विजय द्रौपदी के जलते अंगारों पर नंगे पैर चलकर अपनी पवित्रता साबित करने के साथ समाप्त हुई। इस प्रक्रिया को थिम्मीथी कहा जाता है।

 

भारत में थिम्मीथी त्यौहार कैसे मनाया जाता है?

थिम्मीथी उत्सव तमिलनाडु में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस उत्सव की तैयारी एक महीने पहले शुरू हो जाती है। भक्त लोग खुद को शुद्ध करने के लिए पूरी तरह से शाकाहारी भोजन करते हैं और व्रत करते हैं। वे बड़े प्रार्थना सत्रों में भी शामिल होते हैं। यह मान्यता है कि केवल वे भक्त जो देवी द्रौपदी के समान शुद्ध होते हैं, वे ही आग पर बिना किसी चोट के चल सकते हैं।

दीवाली से एक हफ्ता पहले, अर्जुन और भगवान हनुमान की तस्वीर वाला झंडा फहराया जाता है। यह उत्सव की शुरुआत का संकेत होता है। इस दिन से महाभारत का पाठ हर रात किया जाता है और थिम्मीथी के दो दिन बाद तक चलता है। महाभारत का अंतिम अध्याय उत्सव के अंतिम दिन पढ़ा जाता है और फिर उत्सव खत्म हो जाता है। कुछ जगहों पर महाभारत के अंशों का मंचन भी किया जाता है।

थिम्मीथी के दिन, मंदिर के पास एक 2.7 मीटर गहरा आग का गड्ढा खोदा जाता है। फिर, इस गड्ढे में चंदन की लकड़ी डालकर आग लगाई जाती है, और प्रार्थनाएँ की जाती हैं। इस दौरान, जगह की सारी बत्तियाँ बुझा दी जाती हैं और भक्त आग पर चलने के लिए तैयार होते हैं। आग में जलते कोयले के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता। आग पर चलने वालों की कलाई में हल्दी और नीम की पत्तियाँ बांधी जाती हैं। इस अनुष्ठान की शुरुआत मुख्य पुजारी से होती है, जो सिर पर 'कराकम' नामक पवित्र बर्तन लेकर आग के गड्ढे पर चलते हैं। भक्त उनके पीछे नंगे पांव और आंखें बंद करके चलने लगते हैं, बिना किसी दर्द या तकलीफ के। दर्शक के रूप में, आप भी आग पर चलने वालों को देखकर एक खास भावनात्मक और दिव्य अनुभव महसूस करेंगे। अंतिम दिन, महाभारत का आखिरी हिस्सा पढ़ा जाता है और त्योहार ध्वज को नीचे करके समाप्त होता है।

 

 

कुंभ मेला

कुम्भ मेला एक विशाल धार्मिक मेला है जो हर 12 साल में भारत के चार अलग-अलग स्थानों पर आयोजित किया जाता है: हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयागराज), उज्जैन, और नासिक। यह मेला हिंदू धर्म के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों पर आयोजित होता है और इसमें लाखों लोग भाग लेते हैं। इस मेले में देशभर से यात्री गंगा और यमुना नदियों के पवित्र जल में स्नान करने आते हैं।

यह त्योहार प्राचीन हिंदू पौराणिक कथाओं से संबंधित है और हर बार बारह साल में चार धार्मिक स्थलों में से एक स्थान पर मनाया जाता है: इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक।

यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला है, जिसमें लोग जाति, धर्म, रंग या क्षेत्र की परवाह किए बिना एक ही दिन एक ही उद्देश्य के लिए एकत्र होते हैं।

लोग सोचते हैं कि यह त्योहार हर 12 साल में एक बार ही आता है, लेकिन वास्तव में यह हर तीसरे साल इन चार पवित्र स्थलों में से किसी एक पर होता है। कुम्भ मेले में दुनिया भर से श्रद्धालु एक साथ आकर इस धार्मिक उत्सव का हिस्सा बनते हैं। इस मेले में लोग पवित्र जल में स्नान करते हैं, जो फूलों, धूप और सुगंध से भरा होता है, और वेदों, भजनों और मंत्रों का जाप करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मेले में शामिल होने से सभी पाप धुल जाते हैं और जीवन की समस्याओं से छुटकारा मिलता है। इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

कुम्भ मेला का महत्व

कुम्भ मेला केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह मेला भारतीय समाज की धार्मिक एकता और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाता है। कुम्भ मेला के दौरान लाखों लोग एक साथ आकर एक ही उद्देश्य के लिए एकत्र होते हैं, जिससे सामाजिक एकता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहन मिलता है।

 

बारसाना लठमार होली

लठमार होली, होली के मुख्य त्योहार से 4-5 दिन पहले मनाई जाती है। बारसाना की लठमार होली उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के नंदगांव और बारसाना गाँव में मनाई जाती है और यह होली के त्योहार का एक अनूठा रूप है। इस विशेष त्योहार में, महिलाएँ पुरुषों पर लाठियों (छड़ी) से मारती हैं, जबकि पुरुष अपनी रक्षा के लिए ढाल और बांसुरी लेकर आते हैं। बारसाना लठमार होली एक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व का त्योहार है, जो हर साल रंगों और हंसी-खुशी के साथ मनाया जाता है।

पौराणिक कहानी के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि होली के दिन भगवान कृष्ण, जो नंदगांव से थे, जो राधा के गांव बरसाना आए थे। भगवान कृष्ण ने मजाक में राधा के चेहरे पर रंग लगा दिया। इससे राधा की सहेलियों और गोपियों को गुस्सा गया और उन्होंने उन्हें बांस की लाठियों से बाहर निकाल दिया।

लाठमार होली इसी कहानी को ध्यान में रखकर मनाई जाती है। हर साल, नंदगांव के लोग बरसाना आते हैं और वहाँ की महिलाएँ उन्हें लाठियों और रंगों से बाहर निकाल देती हैं।

लठमार होली कैसे मनाई जाती है?

 

लठमार होली एक हफ्ते तक चलने वाला त्योहार है, जिसमें लोग रंग, गाने, नृत्य और लाठियों के साथ मस्ती करते हैं।

नंदगांव से आए पुरुष महिलाओं को परेशान करते हैं, गाने गाते हैं और उन्हें उकसाते हैं। महिलाएँ, जो गोपियाँ बनती हैं, मजे-मस्ती में उन पुरुषों को लाठियाँ से पीटती हैं। जिन पुरुषों को बारसाना की महिलाएँ पकड़ लेती हैं, उन्हें महिलाओं के कपड़े पहनकर सार्वजनिक जगह पर नाचना पड़ता है। पुरुष खुद को चोट और खरोंच से बचाने के लिए सुरक्षा गियर पहनकर आते हैं।

लोग भगवान कृष्ण और उनकी प्रिय राधा को याद करते हुए 'श्री कृष्ण' और 'श्री राधे' के नारे लगाते हैं। अगले दिन, बारसाना की महिलाएँ नंदगांव जाती हैं और उत्सव जारी रहता है। इसके साथ ही, पारंपरिक 'ठंडाई' का भी सेवन किया जाता है, जो दूध और कुछ जड़ी-बूटियों से बनाया जाता है।

 

पुष्कर का ऊंट और पशु मेला

पुष्कर मेला (पुष्कर ऊंट मेला), जिसे स्थानीय लोग पुष्कर मेला कहते हैं, हर साल अक्टूबर और नवंबर के बीच राजस्थान के पुष्कर शहर में आयोजित किया जाता है। यह मेला एक हफ्ते तक चलता है और ऊंट और पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए मशहूर है। यह दुनिया का सबसे बड़ा ऊंट मेला है। पशुधन की खरीद-बिक्री के अलावा, यह मेला अब एक बड़ा पर्यटन आकर्षण भी बन गया है।

पुष्कर ऊंट मेला गतिविधियाँ

पुष्कर ऊंट मेला दुनिया के सबसे बड़े ऊंट व्यापार मेलों में से एक है। हर साल पुष्कर ऊंट मेले के दौरान 30,000 से ज्यादा मवेशियों का व्यापार होता है।

ऊँट और पशुओं की खरीद-बिक्री के अलावा, पुष्कर ऊँट मेले में लोक संगीत और नृत्य, झूले, जादू के खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रतियोगिताएँ भी होती हैं। इनमें रस्साकशी - महिलाओं और पुरुषों की टीमों के लिए, सबसे लंबी मूंछ की प्रतियोगिता, मटका फोड़, दुल्हन प्रतियोगिता, राजस्थानी समूह नृत्य, ऊँट दौड़, ऊँट सजावट (गोरबंद), ऊँट नृत्य प्रतियोगिता, कुश्ती प्रतियोगिता, और महिलाओं के लिए मटका दौड़ शामिल हैं।

यहाँ पर पशुओं की नीलामी, खेल, और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस मेले के दौरान, पुष्कर गाँव की गलियाँ रंग-बिरंगे परिधानों और पारंपरिक संगीत से गूंज उठती हैं। हाल के सालों में, मेले में एक प्रदर्शनी क्रिकेट मैच भी होता है, जिसमें स्थानीय पुष्कर क्लब और विदेशी पर्यटकों की टीम भाग लेती हैं। पुष्कर मेला राजस्थान की ग्रामीण संस्कृति और व्यापारिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

 

निष्कर्ष

भारत की सांस्कृतिक विविधता और परंपराएँ इस देश की आत्मा को दर्शाती हैं। गाँव की ओलंपिक से लेकर पुष्कर के ऊंट मेले तक, ये सभी आयोजन भारतीय समाज की एकता, समृद्धि, और सांस्कृतिक धरोहर को व्यक्त करते हैं। हर पर्व, त्यौहार, और मेला भारतीय संस्कृति की गहराई और विविधता को प्रकट करता है, जो भारतीय समाज की अमूल्य धरोहर को संरक्षित करता है। इन सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से हम अपनी परंपराओं को याद कर सकते हैं और आने वाली पीढ़ियों को इनकी महत्वता का एहसास करा सकते हैं।

सामाजिक कारण में और पढ़ें

संयुक्त भारत